राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 अध्येता के समग्र विकास की महता पर बल देती है। समग्र विकास के लिए ऐतिहासिक गौरवता के प्रामाणिक अध्ययन की आवश्यकता है। कोई भी इतिहास बिना कालक्रम-ज्ञान के नहीं लिखा जा सकता। वर्तमान समय में जो भी इतिहास लिखा जा रहा है, वह यूरोपीय कालगणना के मानकों से प्रभावित है। कालगणना की इस पद्धति ने संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं (मिस्र, बेबीलोनिया, सिंधुघाटी आदि) के तिथ्यांकन पर अत्यधिक प्रभाव डाला है और भारतीय प्राचीन ग्रंथों की ऐतिहासिकता को अस्वीकार किया है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में काल के विभिन्न अंगों का विस्तार से विवेचन हुआ है। भारतीय ऋषियों ने केवल प्रकृति के घटनाक्रम का अध्ययन कालक्रम के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं किया है, अपितु स्वयं काल को भी अपने सूक्ष्म अध्ययन का विषय बनाया है। आधुनिक युग में भी दर्शन एवं विज्ञान दोनों ने इस काल तत्व पर अपनी-अपनी दृष्टि से प्रभूत विश्लेषण किया है।
•प्रस्तुत कार्यक्रम में काल की सभी भारतीय अवधारणाओं एवं गणनाओं की वैज्ञानिकता को बताया गया है तथा इस कालगणना की वैज्ञानिकता पर प्रश्नकारों के आधारों का विश्लेषण भी किया गया है।
•भारतीय खगोलशास्त्र की वैज्ञानिकता को सिद्ध करते हुए भारत के ऐतिहासिक कालक्रम के प्रामाणिक साक्ष्य प्रस्तुत किए जाएंगे।
•इसके माध्यम से व्यावहारिक काल-गणना के स्वरूप को जान कर वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारतीय ज्ञान-परम्परा की वैज्ञानिकता तथा प्रामाणिकता का बोध होगा।
इस प्रमाणपत्र कार्यक्रम का उद्देश्य शिक्षार्थियों को भारतीय कालगणना एवं ज्ञान परंपरा के वैज्ञानिक तथा तात्त्विक (philosophical) स्वरूप से परिचित कराना है। इसके माध्यम से विद्यार्थी यह समझ पाएंगे कि भारतीय मनीषियों ने ‘काल’ (Time) की अवधारणा को केवल खगोलीय गणना तक सीमित न रखकर, उसे सृष्टि, दर्शन, इतिहास और मानव जीवन के समग्र विकास से जोड़ा है। कार्यक्रम के अंत तक प्रतिभागी —
भारतीय कालगणना, युग-चक्र, पंचांग निर्माण एवं वैदिक ज्योतिष के मूल सिद्धांतों को वैज्ञानिक दृष्टि से समझ सकेंगे।
औपनिवेशिक दृष्टिकोण से प्रभावित इतिहास-लेखन की सीमाओं को पहचानकर, भारतीय ग्रंथों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता को पुनःस्थापित करने की दृष्टि विकसित करेंगे।
‘काल’ के दार्शनिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक आयामों का तुलनात्मक अध्ययन कर सकेंगे।
भारतीय खगोलशास्त्र, गणित, दर्शन, इतिहास एवं संस्कृति से संबंधित शोध और अध्यापन के क्षेत्र में आगे बढ़ने में सक्षम होंगे।
भारतीय ज्ञान परंपरा की वैज्ञानिकता एवं वैश्विक प्रासंगिकता को समझते हुए उसके प्रसार में बौद्धिक रूप से योगदान दे सकेंगे।